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Wednesday, February 8, 2012

{गज़ल:} ज्यों कोई अख़बार ज़िंदगी';'




पल दो पल की  यार  ज़िदगी,
ज्यों  कोई   अख़बार ज़िंदगी।
ख़ाली  ख़ाली,  तन्हा तन्हा,
जैसे  हो  इतवार   ज़िदगी।
थोड़ी  बरखा,  थोड़ी   धूप,
मानो  हुई  कुँवार  ज़िदगी।
उम्र समंदर,  चाहत किश्ती,
सांसों की  पतवार  ज़िदगी।
कभी लहलहाती फसलें पर,
अक्सर  खरपतवार ज़िदगी।
कैसे कटे,  अगरचे  ख़ुद है,
दोधारी  तलवार  ज़िदगी।
खुला आसमां  नेमत रब की,
वरना   कारागार   ज़िदगी।
ओस, बुलबुला, ख़्वाब, हकी़कत,
कुछ भी हो,   है  प्यार  ज़िदगी।


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